तत:-  सद्गुरोराहिता   दीक्षा  सर्वकर्माणि  साधयेत्।  

दीक्षा-विचार (Deeksha Vichar)

 दीक्षा-विचार

दीक्षा-विचार–  दीक्षा के बिना मन्त्रजप दूषित होता है। दीक्षा से दिव्य ज्ञान का लाभ और पापों का नाश होता है। इसी से इसका नाम दीक्षा है;  क्योकि जप-तप आदि का मूल दीक्षा ही है। अत: किसी भी आश्रम में रहने वाले मनुष्य को दीक्षा का आश्रय लेना ही पङता है। अदीक्षित की जप-पूजादि क्रिया पत्थर पर बीज बोने के समान व्यर्थ होती है। दीक्षाविहीन को न तो सद्गति मिलती है और न ही सिध्दि। अत: सभी को गुरु से दीक्षा प्राप्त करनी चाहिये। अदीक्षितों को मरणोपरान्त रौरव नरक में दु:ख भोगना पङता है। अदीक्षित को मृत्यु के बाद पिशाचत्व से मुक्ति नहीं मिलती; इसीलिये यत्नपूर्वक तान्त्रिक दीक्षा लेना परम कर्तव्य है। नवरत्नेश्वर के मत से सभी प्रकार की दीक्षा से मुक्ति मिलती है; साथ ही भोग भी सम्पन्न होता है। विधिपूर्वक दीक्षा लेने से असंख्य पाप तुरन्त भस्म हो जाते हैं। गुरु के पास न जाकर जो ग्रन्थ देखकर जप करता है, उसकी एक हजार मन्वन्तर तक सद्गति नहीं होती है। अदीक्षित व्यक्ति का कोई भी कार्य; यथा-तपस्या, व्रत, नियम आदि तीर्थयात्रा एवं शारीरिक श्रम से सिध्द नहीं होता। अदीक्षित के द्वारा एवं अदीक्षित के लिये किया गया श्राध्द निष्फल होता; क्योंकि अदीक्षित का अन्न विष्टा के समान और जल मूत्र के समान होता है। अदीक्षित के द्वारा किये गये श्राद से पितरों को अधोगति मिलती है। इसलिये सद्गुरु से दीक्षा लेना परमावश्यक है। दीक्षा लेकर ही सभी कर्मों का साधन करना चाहिये।

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